उत्पादकता मे वृद्धि
कृषि यन्त्रीकरण सें कृषि क्षेत्र मे गहन खेती सम्भव हो पाती है, जिससे प्रति हेक्टेयर उत्पादन मे वृद्धि होती है। यन्त्रीकरण के अन्तर्गत वैज्ञानिक यन्त्रो का प्रयोग होने से भूमी की उत्पादनशील बढ़ जाती है।
उत्पादन लागत मे कमी कृषि यन्त्रीकरण की सहायता से उत्पादन की औसत लागत को घटाना सम्भव हो पाया है। आधुनिक यन्त्रो और उपकरणो की सहायता से कृषि कार्य अधिक कुशलता के साथ किये जा सकते है, जिससे उत्पादन बढ़ता है तथा उत्पादन की औसत कम लागत हो जाती है। उत्पादक लागत की कमी किसानो के लाभ को अधिक करती है।
अन्य कृषि आदानो का समुचित प्रयोग सम्भव कृषि की उत्पादकता मे वृद्धि के लिए अनेक नये -नये आदानो जैसे उन्नत किस्म के बीज , रासायनिक खादे एवं बीज उर्वरक आदि का पूर्ण लाभ कृषि यन्त्रीकरण करके प्राप्त किया जा सकता है । परम्परागत उपकरणो से खेती करके इन नवीन कृषि आदानो का प्रयोग करते हुये भी उत्पादकता में वांछित वृद्धि नही की जा सकती ।
व्यापारिक खेती का विस्तार कृषि का यन्त्रीकरण करके व्यापारिक फसलो के उत्पादन मे भी वृद्धि सम्भव हो पाती है। जिससे अनेक सहायक उद्योगो का संचालन होता है। इस प्रकार यन्त्रीकरण की सहायता से कृषि उत्पादकता में वृद्धि करके अनेक सहायक उद्योगो को कच्चे माल की आपुर्ति की जा सकती है।
रोजगार अवसरो का विस्तार कृषि यन्त्रीकरण अपनाये जाने से कृषि उपकरणो के निर्माण एवं मरम्मत से सम्बन्धित उद्योग मे रोजगार अवसरो का पर्याप्त विस्तार होता है साथ- ही -साथ व्यपारिक कृषि मे विस्तार से होने सहायक उद्योगो मे भी अतिरिक्त रोजगार अवसर होते है।
कृषि यन्त्रीकरण के दोष
यद्यपि यन्त्रीकरण करके कृषि क्षेत्र में अनेक लाभ प्राप्त किये जा सकते है किन्तु भारत जैसे देश में जहाँ जनधिक्य है। तथा कृषि क्षेत्र अनेक आर्थिक एवं सामाजिक दोषो से पीड़ित है, कृषि यन्त्रीकरण की नीति लाभप्रद न होकर हानिकारक बन जाती है। भारतीय परिस्थितियो मे यन्त्रीकरण करने मे अनेक दोष एवं समस्याऐ उत्पन्न होती है, जिनका विवरण निम्नलिखित है
1. कृषि जोतो के छोटे आकार के विवरण के कारण अमितव्यापी ।
2. कृषको की निर्धनता एवं ऋणग्रस्तता में वृद्धि ।
3. कृषको की अशिक्षा एवं परम्परावादी दृष्टिकोण ।
4. प्रर्याप्त शक्ति साधनों ( जैसे डीजल , विद्युत , पेट्रोल . आदि ) का आभाव ।
5. पशु शक्ति का आधिक्य एवं यन्त्रीकरण मे पशु शक्ति मानव पर बोझ ।
सामरिक कृषि अनुसन्धान राष्ट्रीय निधि
कृषि विविधीकरण को प्रोत्साहन देने तथा इसमे नई जान फुँकने मे कृषि अनुसन्धान की भमिका अति महत्तवपूर्ण है। विगत कई वर्षो से भारतीय कृषि विश्यविद्यालयो कृषि महाविद्यालयो तथा कृषि अनुसन्धान संस्थानो के उल्लेखनीय उपलब्धियाँ हासिल की है। अब जाने की आवश्यकता है। कृषि वैज्ञानिक तथा राष्ट्रीय कृषि आयोग के अध्यक्ष डॉ . एम . एस . स्वमीनाथन की अध्यक्षता में गठित एक टास्क फोर्स ने सामरिक कृषि अनुसन्धान हेतु एक राष्ट्रीय निधि स्थापित किऐ जाने की अनुशंसा की थी।
ग्रामीण ज्ञान केन्द्र
राष्ट्रीय कृषि आयोग ने आधुनिक सूचना एवं संचार तकनीक को अपनाते हुए सारे देश मे ग्रामीण ज्ञान केन्द्र स्थापित करने का सुझाव दिया था भारत के तत्कालिन राष्ट्रपति ड़ॉ .ए.पी . जे . अब्दुल कलाम का मानना है की “भारतीय अर्थव्यवस्था में उच्च विकास दर की उपलब्धि हासिल करने की कुँजी ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था का विकास करने मे निहित है ” डॉ . कलाम द्वारा बतलाए गऐ ‘पुरा’ (ग्रामीणो क्षेत्रो मे शहरी सुख – सुविधाएँ उपलब्ध कराना ) मॉडल मे जिन चार प्रकार के सम्पर्क स्थापित किये जाने की बात कही है, उनमे से एक ‘ ज्ञान सम्पर्कता ’ भी है। देश के 80 से अधिक ,जिनमे नागरिक समाज संगठन भी शामिल है, ने एक गठबन्धन बनाकर मिशन 2007 प्रारम्भ किया था जोकि एक राष्ट्रीय स्तर का प्रयास था। इस मिशन का लक्ष्य देश की स्वतन्त्रता की 60वी वर्षगाँठ तक प्रत्येक गाँव मे एक ज्ञान केन्द्र की स्थापना किया जाना था । प्रारम्भ मे यह सेन्टर आन्ध्र प्रदेश ,गुजरात ,कर्नाटक महाराष्ट्र , उड़ीसा , पुदुचेरी , राजस्थान , तमिलनाडु , उत्तराखण्ड व पश्चिम बंगाल मे स्थापित किये गये थे।
स्थायी कृषि विकास
स्थायी कृषि विकास से तात्पर्य कृषि रसायनो पर न्यूनतम सीमा तक आश्रित रहकर कृषि के ऐसे स्वरुप से है, जिसमे जीवांशयम खादो ,न्यूनतम भू – परिष्करण शस्य – चक जैव उर्वरक तथा जैविक पौधे संरक्षण की विधिया उपयोग में लाई जाती है।
सामान्यत: स्थायी कृषि विकास भूमि , वन्य प्राणी , फसल मत्स्य – पालन , पशु – पालन , वन- संरक्षण , पौधे – आनुवंशिकी तथा परिस्थितिक तन्त्र के सन्तुलित प्रबन्ध द्वारा पर्यावरण को दुषित होने से बचाकर वर्तमान एवं प्राकृतिक वास को बनाये रखने की पद्धति है। यह अल्पकालिक ही नही , प्रत्युत दीर्घकालिक आर्थिक सम्भावनाओ के दृषिकोण से बहुत उपयोगी एवं अनुकरणीय है। प्राकृतिक संसाधनो से मनुष्य को अन्न , वस्त्र , ईधन चारा एवं लडकी प्राप्त होने के साथ ही हानिकारक रसायनो द्वारा उत्पन्न मृदा विषाक्तता एवं जल को कम करने , अनुकूल मौसम , वाह – क्षेत्र मे जल – चक्र नियन्त्रण आदि के सम्वर्धन मे भी सहायता प्राप्त होती है। स्थायी कृषि से मृदा अवक्रमण तथा मृदा क्षरण की रोकथाम के साथ ही पोषक तत्वो की परिपूर्ति , खरपतवार , कीट एवं रोग व्याधियो का जैविक तथा कृषिक विधियो से नियन्त्रित किया जाता है।
स्थायी कृषि विकास को रक्षणीय कृषि , पारिस्थितिकीय कृषि , जीवांश कृषि प्राकृतिक कृषि या परमाकल्चर आदि अनेक नामो से भी जाना जात है। इसे पारिस्थितिकी कृषि कहे जाने का मुख्य कारण है कि इस कृषि पद्धति मे पारिस्थितिकीय सन्तुलन बनाये रखने पर विशेष बल दिया जाता है।
इसी प्रकार जीवांश कृषि उदबोधन का कारण है कि इस कृषि में पोशक तत्व प्रदान करने के लिए जीवांश पदार्थ ही मुख्य स्रोत रहता है । स्थायी कृषि विकास के प्रमुख्य घटक इस प्रकार है यथा – पोषक तत्वो का एकीकृत प्रबन्ध , समन्वित कीट प्रबन्ध , स्थायी जल प्रबन्ध , फसल – कटाई परवर्ती प्रौद्योगिकी , सुदृढ़ प्रसार का कार्यक्रम , अनुवंशिकी विविधता , खरपतवार प्रबन्ध आदि।
भारत मे नये कृषि प्रतिरुप
भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहाँ की कृषि यहाँ की सामाजिक दशाओ क द्वारा अधिक प्रभावित है। , फलस्वरुप यहाँ की कृषि परम्परागत प्रकार की रही है। स्वतन्त्रता के उपरान्त बढ़ती हुई जनसंख्या को खाद्य – आपुर्ती हेतु कृषि के क्षेत्र मे नये प्रयास किये गऐ , जिसमे भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद तथा भारतीय मौसम विभाग के वैज्ञानिको का विशेष योगदान रहा है। इस क्षेत्र विभिन्न कृषि विश्वविद्यालयो तथा कृषि प्रौद्योगिकी अनुसन्धान केन्द्रो का भी योगदाना रहा ।
इसके फलस्वरुप देश में नये बीज, उर्वरक तथा सिंचाई के साधनो का विकास किया जाता है। जिसके फलस्वरुप 1966-69 में देश में हरित क्रान्ति आयी थी । वर्तमान मे नई कृषि प्रौद्योगिकी एव वैश्वीकरण के फलस्वरुप देश मे कृषि प्रणाली में परिवर्तन आया है। क्षेत्रिय , भौतिक , मृदा तथा जलवायु विशेषताओ के अनुसार की जा रही नई कृषि के कारण देश के क्षेत्र मे निम्न अभिनव प्रवृत्तिया दिखायी प़ड रही है। यथा ।
1. उत्तर प्रदेश एवं बिहार मे आँवला तथा लीची का उत्पादन ।
2. गुजरात में चारा उत्पादन ।
3. कर्नाटक तथा तमिलनाडु की पहाड़ियो पर चाय , कहवा , इलायची तथा अन्य बागती फसलो का उत्पादन ।
4. हिमाचल प्रदेश मे फलोद्यान कृषि ।
5. मैसूर पठार पर नारियल , गन्ना एवं धान का उत्पादन ।
6. राजस्थान मे विशेष रुप से इन्दिरा नहर के सहारे गेहूँ का उत्पादन बढ रहा है।
7. गंगानगर का सूरतगढ़ स्थान गेहू के कृषि फार्म के रुप मे प्रसिद्ध है।
8. पंजाब मे कपास एवं धान के उत्पादक मे वृद्धि । पंजाब गेहू धान एवं कपास के प्रति हेक्टेयर उत्पादन में देश का अग्रणी राज्य है।
9. हिमाचल प्रदेश तथा उत्तर प्रदेश हिमालय मे चाय बागान ।
10. देश बड़े नगरो एवं महानगरो के चतुर्दिक पुष्षोत्पादन , सब्जी एवं अन्य वाणिज्यिक फसलो का उत्पादन ।
11. पूर्वी हिमालय एवं पश्चिमी हिमालय मे आलू का उत्पादन ।
12. महाराष्ट्र मे गन्ना एवं फलो का उत्पादन ।
13. मध्य प्रदेश में मसाला एवं सोयाबीन का उत्पादन।
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