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भारत में नये कृषि प्रतिरुप
भारत एक कृषि प्रधान देश है। यहाँ की कृषि यहाँ की समाजिक दशाओं द्वारा अधिक प्रभावित है, फलस्वरुप यहाँ की कृषि परम्परागत प्रकार की रही है। स्वतन्त्रता के उपरान्त बढ़ती हुई जनसंख्या को खाद्य – आपूर्ति हेतु कृषि के क्षेत्र में नये प्रयास किये गए, जिसमें भारतीय कृषि अनुसाधन परिषद तथा भारतीय मौसम विभाग के वैज्ञानिकों का विशेष यौगदान रहा है। इस क्षेत्र में विभिन्न कृषि विश्वविद्यालयों तथा कृषि प्रौद्योगिकी अनुसन्धान केन्द्रो का भी योगदान रहा।
इसके फलस्वरुप देश में नये बीज, उर्वरक तथा सिंचाई के साधनों का विकास किया जाता है जिसके फलस्वरुप 1966-69 में देश में हरित क्रान्ति आयी थी। वर्तमान में कृषि प्रौद्योगिकी एवं वैश्वीकरण के फलस्वरुप देश में कृषि प्रणाली में परिवर्तन आया है। क्षेत्रीय, भौतिक, मृदा तथा जलवायु विशेषताओ के अनुसार की जा रही नई कृषि के कारण देश के कृषि-मानचित्र पर कुछ नये प्रतिरुप निकलकर आ रहे हैं। जिसके परिणामस्वरुप कृषि के क्षेत्र में निम्न अभिनव प्रवृत्तियाँ दिखायी पड़ रही हैं । यथा
1. उत्तर प्रदेश एवं बिहार में आँवला तथा लीची का उत्पादन।
2. गुजरात में चारा उत्पादन ।
3. कर्नाटक तथा तमिलनाडु की पहाड़ियो पर चाय, कहवा इलायची तथा अन्य बागती फसलों का उत्पादन।
4. त्रिपुरा में रबर की खेती।
5. हिमाचल प्रदेश में फलोद्यान कृषि ।
6. मैसूर पठार पर नारियल गन्ना एवं धान का उत्पादन।
7. राजस्थान में विशेष रुप से इन्दिरा नहर के सहारे गेहु का उत्पादन बढ़ रहा है।
गंगानगर का सूरतगढ़ स्थान गेहुँ के कृषि फार्म के रुप में प्रसिद्ध है।
8. पंजाब में कपास एवं धान के उत्पादन में वृद्धि । पंजाब गेहूँ, धान एवं कपास के प्रति हेक्टेयर उत्पादन में देश का अग्रणी राज्य है।
9. हिमाचल प्रदेश तथा उत्तर प्रदेश हिमाचल में चाय बागान ।
10. देश के बड़े नगरो एवं महानगरो के चतुर्दिक पुष्पोत्पादन, सब्जी एवं अन्य वाणिज्यिक फसलों का उत्पादन ।
11. पूर्वी हिमाचल एवं पश्चिमी हिमाचल में आलू का उत्पादन ।
12. महाराष्ट्र में गन्ना एवं फलो का उत्पादन ।
13. मध्य प्रदेश में मसाला एंव सोयाबीन का उत्पादन।
इस नये कृषि प्रतिरुप का देश की अर्थव्यवस्था पर व्यापक प्रभाव पड़ा है। निर्वाहक भारतिय कृषि अब निर्यातोन्मुखी स्वरुप धारण कर रही है। कृषि क्षेत्र में रोजगार के नये अवसर खुल रहे। नये कृषि तकनीकी का नवाचार प्रसारण नये युग में प्रवेश का सूचक है ।
परा-फसल कटाई तकनीक
कटाई के उपरान्त कृषि क्रियाओं में फसलो की मड़ाई, ओसाई, सफाई तथा उन समस्त कार्यों को सम्मिलित किया जाता है, जिससे उत्पादित पदार्थ की गुणवत्ता में वृद्धि कर उसे अच्छे मूल्य प्राप्त करने योग्य बनाया जा सके ।इन क्रियाओं को फसलो के संसाधन के नाम से जाना जाता है। संसाधन फसलोत्पादन की एक प्रमुख क्रिया है। फसलों के संसाधन के अधोलिखित उद्देशय होते है
1. उत्पादित पदार्थ को बाजार में अच्छा मूल्य उपलब्ध करने योग्य बनाया।
2. उत्पादित पदार्थ को सुरक्षित रखना तथा भण्डार में अधिक समय तक सुरक्षित रखे जाने योग्य बनाना।
3. उत्पादित पदार्थ की माँग के अनुसार अच्छे पर विक्रय हेतु ले जाने के लिए तैयार करना।
4. उपज की गुणवत्ता में वृद्धि करना ।
5. फसल के दानो अथवा उपयोगी पदार्थ से अनावश्यक पदार्थ, भूसा, गाँठ, मिट्टी, खरपतवारों के बीज आदि की अलग करके उत्पादित पदार्थ को स्वच्छ बनाना।
6. माँग के अनुसार पदार्थ तैयार करना तथा बाजार की माँग को बढ़ाना। विभिन्न प्रकार की फसलो को उनके उत्पादित पदार्थ के अनुसार अलग अलग प्रकार से संसाधित किया जाता है । फसलो का संसाधन फसल की किस्म, उपयोगी, भण्डारण क्षमता तथा बाजार की दूरी पर निर्भर करता है।
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प्रौद्योगिकी का हस्तान्तरण
कृषि प्रसार-शिक्षा का मुख्य कार्य, कृषि विश्वविद्यालयों एवं अनुसाधन केन्द्रो से निर्गत नवीन कृषि प्रौद्योगिकी को कृषकों तक पहुँचना है। देश में औसत कृषि उत्पादकता बहुत निम्न है। अनुसन्धान संस्थानों एवं किसानो के बीच उत्पादकता के भारी अन्तर का प्रमुख कारण प्रविधियों का किसानो द्वारा प्रयोग न किया जाना है। कृषि की नई-नई विधियों एवं ग्रामीण विकास सें सम्बन्धित विकास प्रौद्योगिकी को ग्रामीणों एवं किसानो तक हस्तान्तरित करने के उद्देश्य से समय-समय पर कई योजनाओं का क्रियान्वयन किया जा रहा है।
कृषि निर्यात क्षेत्रों की स्थापना
कृषि निर्यात को प्रोत्साहित करने के कार्यक्रम तहत सात राज्यो के आठ नये कृषि निर्यात क्षेत्रों (Agro-Export Zones - AEZs) की स्थापना की मंजूरी के साथ ही देश के 19 राज्यो में कृषि निर्यात क्षेत्रो की कुल संख्या 46 हो गई थी। कृषि निर्यात क्षेत्रो के कृषि और प्रसंस्कृत खाद्य उत्पाद निर्यात विकास प्राधिकरण (एपेडा - APEDA) को कुल 82 आवेदन पत्र प्राप्त हुए थे, जिनमे से 46 को अनुमति प्रदान की जा चुकी है। जिन नए निर्यात क्षेत्रो को मंजूरी प्रदान की गई है, उनमें उत्तराखण्ड में बासमती चावल, मध्य प्रदेश में मसालो , पश्चिम बंग व तमिलनाडु में आम, पश्चिम बंग में ही सब्जी , महाराष्ट्र में प्याज , झारखण्ड में सब्जी तथा ओडिशा में अदरक व हल्दी के लिए निर्यात क्षेत्र शामिल हैं ।
उत्तराखण्ड में बासमती चावल के लिए स्थापित किए जाने वाला निर्यात क्षेत्र अपनी तरह का देश का दूसरा निर्यात क्षेत्र होगा । बासमती के लिए एक निर्यात क्षेत्र पंजाब में पहले स्थापित किया गया है । मध्य प्रदेश में स्थापित किया जाने वाला बीज मसाला निर्यात क्षेत्र अपनी तरह का देश में पहला निर्यात क्षेत्र है, यह धनियाँ व मैथी के निर्यात पर केन्द्रेत होगा। इससे पूर्व प्याज, आलू व अदरक के लिए एक कृषि निर्यात क्षेत्र पहले ही मध्य प्रदेश के लिए स्वीकृत किया जा चुका है।
पराजीनी कृषि
जैव तकनीक के उपयोगी से कृषि उत्पादन में वृद्धि के व्यापक प्रयासो में पराजीनी कृषि आधुनिकतम है, जिससे कि कृषि में काफी प्रगति की सम्भावना है । विश्व में भूमी संसाधन, उर्वरक प्रयोग एंव विकसित कृषि तकनीक के उपयोगी की एक सीमा है। पराजीनी पौधों की प्रजातियों के विकास में प्राकृतिक जीन में कृत्रिम उपायों द्वारा किसी दूसरे पौधे के जीन का भाग जोड़ दिया जाता है अथवा इसकी मूल संरचना को परिवर्तित कर दिया जाता है । जिसका उद्देश्य जल की आवश्यक्ता को कम करना, रोग तथा कीट के प्रति प्रतिरोध क्षमता का विकास करना, पौधों में गुणवत्ता तथा उत्पादता में वृद्धि करना , प्रोटीन तथा खनिजो की मात्रा में वृद्धि करके अधिक पौष्टिक बनाना हो सकता है । उल्लेखनीय है कि पराजीनी कृषि की सीसाएँ अब जन्तुओं के उपयोगी जीनो को पौधों में स्थानान्तरिक करने तक पहुँच गई है । मछली के जीन को टमाटर के पौधें में स्थानान्तरित करके टमाटर के भण्डारण में विकास इसका एक सर्वोंत्कृष्ट उदाहरण है ।
फर्टीगेशन
फर्टीगेशन का अर्थ है सिंचाई-जल के द्वारा उर्वरक प्रदान करना , जिससे उर्वरक एवं सिंचाई जल दोनों की उपयोगी क्षमता बढ़ जाए। यह एक प्राचीन विधि है जिसका उपयोग एथेन्स (ग्रीस) के ग्रोब्स वृक्षो में पोषक तत्वो एंव सिंचाई जल प्रदान करने के लिए किया जाता है। इसके वर्तमान स्वरुप का जन्मदाता इजराइल को माना जाता है। इजराइल में Micro Irrigation System (MIS) के तहत ड्रिप, जेंट्स, सूक्ष्म फव्वारे आदि आते है। इसके विकास के साथ ही आधुनिक फर्टीगेशन को बढ़ावा मिला है। इस विधि द्वारा एक तत्वीय अथवा बहुतत्वीय उर्वरक का प्रयोग किया जा सकता है। इससे सिंचाई जल तथा उर्वरक दोनों की ही उपयोग क्षमता में वृद्धि होती है। इसका उपयोग बाग बगीचे, सब्जियों, ग्रीन हाउसों एवं पुष्पों आदि में सफलतापूर्वक किया जाता है। कपास, मक्का, तम्बाकू आदि में यह विधि उपयोग में लाई जाती है।
इस विधि में उर्वरक स्भाव में पूर्ण घुलनशील एंव सिंचाई जल अभिक्रिया विहिन होना चाहिए। यह गुण नाइट्रोजल तथा पौटेशियम उर्वरकों में मिलता है। अत: उक्त उर्वरक इस विधि के प्रयोग के लिए अति उपयुक्त होते हैं।